राजस्थान, जहाँ सुनहरे रेगिस्तान और ऐतिहासिक किलों की भरमार है, वहीँ इस भूमि ने अब एक और गौरवशाली पहल की है—प्रोजेक्ट लेपर्ड। बाघों की तरह अब तेंदुओं के लिए भी समर्पित संरक्षण योजना अस्तित्व में है। इस योजना का उद्देश्य न केवल तेंदुओं की रक्षा करना है, बल्कि स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर एक ऐसा मॉडल बनाना है जो जैव विविधता, पर्यटन और आजीविका—तीनों को संतुलित कर सके।
इस ब्लॉग में हम आपको बताएंगे प्रोजेक्ट लेपर्ड क्या है, इसकी शुरुआत कैसे हुई, इसका दायरा कितना है, और यह क्यों भारत की एक अनूठी संरक्षण योजना बनकर उभरा है।
प्रोजेक्ट लेपर्ड क्या है?
प्रोजेक्ट लेपर्ड राजस्थान सरकार की एक प्रमुख वन्यजीव संरक्षण योजना है, जिसकी शुरुआत 2020 में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य तेंदुओं और उनके आवासों का संरक्षण, उनके और इंसानों के बीच बढ़ते टकराव को कम करना, और उन क्षेत्रों को पर्यटन हब में बदलना है जहाँ ये खूबसूरत शिकारी पाए जाते हैं।
यह योजना “प्रोजेक्ट टाइगर” की तर्ज पर बनाई गई है, लेकिन यह और भी अनूठी है क्योंकि इसका फोकस है मानव-वन्यजीव सह-अस्तित्व।
प्रोजेक्ट लेपर्ड की शुरुआत कब और क्यों हुई?
राजस्थान के कुछ खास क्षेत्रों—जैसे जयपुर के आमेर और झालाना, पाली का बेरा, और जोधपुर का रावली—में तेंदुओं की उपस्थिति लंबे समय से देखी जाती रही है। परंतु, इन इलाकों में शहरीकरण, खेत विस्तार और जंगल कटाई के कारण तेंदुओं के प्राकृतिक आवास सिकुड़ रहे थे।
2016–2019 के बीच मानव-तेंदुआ संघर्ष की घटनाएँ बढ़ने लगीं। इन परिस्थितियों को देखते हुए, सरकार ने एक वैज्ञानिक और समुदाय-आधारित संरक्षण रणनीति अपनाने का निर्णय लिया, और इस तरह जन्म हुआ प्रोजेक्ट लेपर्ड का।
प्रोजेक्ट लेपर्ड के मुख्य उद्देश्य
- तेंदुओं और उनके प्राकृतिक आवासों का संरक्षण
- मानव-तेंदुआ संघर्ष को कम करना
- स्थानीय समुदायों को रोजगार से जोड़ना
- इको-टूरिज्म को बढ़ावा देना
- शिक्षा और जागरूकता के कार्यक्रम चलाना
प्रोजेक्ट लेपर्ड के प्रमुख क्षेत्र
स्थान | जिला | विशेषताएँ |
---|---|---|
झालाना लेपर्ड सफारी | जयपुर | शहरी क्षेत्र में बसा पहला लेपर्ड रिज़र्व |
बेरा और जवई | पाली | तेंदुओं और मानवों के सह-अस्तित्व का वैश्विक उदाहरण |
रावली टोडगढ़ | अजमेर/राजसमंद | घने पहाड़ी इलाके में बसे तेंदुओं का सुरक्षित आवास |
बागोड़ा | जालोर | नया क्षेत्र जहाँ लेपर्ड मूवमेंट बढ़ा है |
तेंदुओं की संख्या और ट्रैकिंग
राजस्थान में 800 से अधिक तेंदुए हैं, जिनमें से एक बड़ी संख्या उपरोक्त क्षेत्रों में रहती है। इन तेंदुओं की ट्रैकिंग के लिए सरकार ने GPS रेडियो कॉलर, कैमरा ट्रैप, और ड्रोन तकनीक का उपयोग शुरू किया है। इससे न केवल उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी जाती है, बल्कि संभावित टकराव की घटनाओं को रोका भी जाता है।
मानव और तेंदुए का सह-अस्तित्व: एक सीखने योग्य मॉडल
बेरा और जवई गाँवों में स्थानीय समुदाय तेंदुओं के साथ रहना सीख चुके हैं। वहाँ तेंदुओं को “देवता का रूप” माना जाता है। नतीजा? इन क्षेत्रों में शिकार लगभग नगण्य है, और इको-टूरिज्म ने ग्रामीणों की आय का मुख्य स्रोत बनकर उभरा है।
इको-टूरिज्म और आजीविका
प्रोजेक्ट लेपर्ड ने इन क्षेत्रों को वन्यजीव पर्यटन हब में बदल दिया है:
- झालाना सफारी में हर साल हजारों पर्यटक आते हैं।
- बेरा में होटल और होमस्टे की माँग बढ़ी है।
- गाइड, ड्राइवर, शिल्पकार और स्थानीय हस्तकला उद्योग को रोज़गार मिला है।
प्रमुख चुनौतियाँ
- अतिक्रमण और भूमि परिवर्तन
- शहरीकरण और वाहन दुर्घटनाएँ
- जल संकट और अवैध शिकार
- जागरूकता की कमी
प्रोजेक्ट लेपर्ड की भविष्य की योजनाएँ
- और अधिक लेपर्ड कॉरिडोर बनाना
- टेक्नोलॉजी आधारित ट्रैकिंग को मजबूत करना
- पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना
- स्कूलों और कॉलेजों में वन्यजीव शिक्षा को शामिल करना
प्रोजेक्ट लेपर्ड सिर्फ एक संरक्षण योजना नहीं, बल्कि एक संवेदनशीलता और सह-अस्तित्व का प्रतीक है। यह हमें यह सिखाता है कि मानव और वन्यजीव एक साथ रह सकते हैं, यदि योजना, प्रतिबद्धता और समुदाय को साथ लाया जाए। राजस्थान की यह पहल आने वाले वर्षों में देश और दुनिया के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन सकती है।